Monday 10 April 2017

Girish Tiwari (Girda) गिरीश तिवारी 'गिर्दा'

गिरीश तिवारी 'गिर्दा'





गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली हवालबाग गांव में हुआ।  उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवाडी और माता का नाम जीवंती तिवाडी था। 'गिर्दा' का परिवार थोड़ा उच्चवर्गीय तो था ही इसलिये गिर्दा'  को पढ़ाई के लिये  अल्मोड़ा भेज दिया गया । 'गिर्दा' ने  कक्षा 5 तक कोई पढ़ाई नहीं की। कक्षा 6 से स्कूल में भरती हुए । ग्रामीण वातावरण में पैदा हुए  तो गाने-बजाने की ओर भी रुझान था। गिर्दा मूलतः कुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं,लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में अपनी एक
अलग पहचान बनायी। वह आजीवन जन संघर्षों से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में जन पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी।  'गिर्दा' ने अपने परिचय को  कुछ इस प्रकार दिया  -









‘अरे गौं गाड़ को पत्त दिण तै भई हमारी पुरानी परिपाटी,
जिल्ल अल्मोड़ा, गौं ज्योली, पट्टी तल्ला स्यूनरा में हवालबाग की घाटी,
भुस्स पहाड़ में जन्म मेरो, च्यून-च्यून बसी भै हिमाल,
शीशि मेरो असमान पूजी, काखि में लोटि रूनी म्यर डाँडी-काँठी।’


'गिर्दा' करीब कक्षा 7-8 में चारु चन्द्र पाण्डे जी के सम्पर्क में आये।  चारु चन्द्र पाण्डे जी ने ही उन्हें स्कूल के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया। चारु चन्द्र पाण्डे जी की सहायता से गिर्दा' को और फिर गौर्दा के माध्यम से सम्पूर्ण लोक साहित्य को समझने की प्रेरणा मिली। 'गिर्दा' ने हाईस्कूल की परीक्षा राजकीय इंटर कालेज अल्मोड़ा  और इंटर एशडेल स्कूल, नैनीताल (व्यक्तिगत) से पास किया। 1964  'गिर्दा' लखनऊ चले गये । इसके बाद गिर्दा गीत और नाटक प्रभाग, आकाशवाणी में नौकरी करने लगे, स्व० जीत जरधारी और बंशीधर पाठक "जिग्यासू" के माध्यम से गिर्दा ने रेडियो प्रसारण में अपने कई कार्यक्रम दिये। तारा दत्त सती जी के सथ मिलकर मोहिल माटी और रामायण नृत्य नाटिकायें लिखी तो लेनिन पन्त जी के साथ अंधाधुन्ध नाटक का निर्देशन और संगीत रचना की। इसी दौरान धनुष यग्य और नगाड़े खामोश हैं, नाटक भी लिखे। बाद में मिस्टर ग्लांड, अन्धेर नगरी और भारत दुर्दशा नामक नाटकों का निर्देशन भी किया। गिर्दा ने अनेक कुमाऊंनी गीतों का धुन सहित हिन्दी में भी अनुवाद किया है। उर्दू से कुमाऊंनी और कुमाऊंनी से उर्दू रचनाओं का भी अनुवाद इन्होने किया। फैज की प्रमुख रचना "हम मेहनतकश जग वालॊ" का कुमाऊनी अनुवाद "हम कुल्ली कबाड़े, ओड़ बारूडी़" इसका एक उदाहरण है।

तत्पाश्चात 'गिर्दा' PWD बर्ग-4 में SOIL TESTING में पिलीभीत  आये । उन दिनों लखीमपुर खीरी में कुछ परिवर्तन गामी शक्तिया काम कर रही थी 'गिर्दा' का उनसे सम्पर्क हुआ। 1967 में 'गिर्दा' सरोवर नगरी नैनीताल में आये वहा  'गिर्दा' बृजेन लाल शाह से मिले । 'गिर्दा' बृजेन लाल शाह जी से बचपन से ही प्ररित थे । 'गिर्दा'  ने उन्से 800 से ज्यादा धुनें और शब्दो का उपयोग सीखा। उन्ही से 'गिर्दा' ने संगीत का चरित्रीक विस्लेषण  सीखा । आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला। प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’ ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं । गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है।

उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम 'चलता फिरता रेडियो' बन गए। वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का 'नैनीताल बुलेटिन' तल्लीताल डांठ पर पड़ने लगे। उन्होंने हिंदी, उर्दू, कुमाऊनीं व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिंग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये। उत्तराखण्ड आन्दोलन जब अपने पूरे शबाब पर था और सभी सांस्कृतिक संस्थाएँ, कलाकार, रंगकर्मी, कवि आदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गीत, संगीत, नाटक के जरिये आन्दोलन को तेल-पानी दे रहे थे और पूरा जनमानस इस ऊर्जा से चार्ज था। उत्तराखण्ड आन्दोलन  में रोज-बरोज नये छंद जुड़ते और इसी से उत्तराखण्ड काव्य की रचना हुई। उत्तराखण्ड काव्य पर स्वयं 'गिर्दा' ने बहुत सटीक टिप्पणी की है।

‘यह काव्य या कि यह गीत पंक्तियाँ 
चूँकि नहीं बनती प्रतिदिन
नुक्कड़ नुक्कड़ ये गाने हित
गा कर खबर सुनाने हित
आन्दोलन मुखर बनाने हित
इसलिए इन्हें हू ब हू बहुत मुश्किल
हरूफों में लिख पाना
जैसे कोई लोक काव्य।’



जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेंद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में 'उत्तराखंड ऐसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका-UANA' के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे जहां नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी। उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था। प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृति कर्मी स्वर्गीय बृजेन्द्र  लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ’मेरी विरासत का वारिश गिर्दा है।‘ गिर्दा, आदि विद्रोही थे। वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए। प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया। उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया। होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया।


उत्तराखंड के जनकवि गिरीश चंद्र तिवाडी ‘गिर्दा’ का 22 अगस्त 2010 सुबह हल्द्वानी में देहांत हो गया। वह काफी समय से बीमार चल रहे थे। उनकी अंत्येष्टि 23 अगस्त 2010 सुबह पाईन्स, नैनीताल में सम्पन्न हुई। गिर्दा भौतिक रूप से आज हमारे बीच नहीं है। एक शरीर चला गया लेकिन उनका संघर्ष, उनकी बात, उनके गीत, उनकी कविता, उनके लोक नाटकों में उठाए गये मुद्दे और जो कुछ वह समाज को दे गये वह सारा कुछ हमेशा जनसंघर्षो को ऊर्जा देता रहेगा। गिरदा आम जन की हर लड़ाई में संघर्ष के गीत गाते रहेंगे। जनता के पक्ष के कवि की आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी।





गिरदा परिपक्व दृष्टि वाला एक ऐसा जनकवि था जो जनता के खिलाफ हाने वाले हर षडयन्त्र के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़ा था और उन षडयन्त्रों के खिलाफ लोगों को आगाह करते हुए चलता था। 

‘उत्तराखण्ड की, आज लड़ाई यह जो,
हम लड़ रहे सभी, सीमित हरगिज उत्तराखण्ड तक। 
इसे नहीं, साथी समझो
यदि सोच संकुचित हुआ कहीं, तो भटक लड़ाई जाएगी इसलिए। 
खुले दिल और दिमाग से |
 मित्रो लड़ना है इसको।’

गिरदा ने इस सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ हमेशा ही टिप्पणी की है- 

‘हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें,
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें। 
गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागीं थी क्या, 
खुद निशाने पे पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें'। 

 पहाड़ी (पारम्परिक) होलियों को भी गिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इस गौरवशाली परम्परा को और व्यापक फलक तथा दृष्टि दी और कई नये प्रयोग भी किये । होली गीतों को भी अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिकता दी। 

‘झुकी आयो शहर में व्योपारी,
पेप्सी कोला की गोद में बैठी, संसद मारे पिचकारी
दिल्ली शहर में लूट मची है। आयो विदेशी व्योपारी।’

"नशा नही रोजगार दो आन्दोलन" के दौरान "जन एकता कूच करो, मुक्ति चाहते हो तो आओ संघर्ष में कूद पडो"  गाकर आम जनता से आन्दोलन में भागीदारी का आह्वान किया। मजदूर-किसानों के हक दिलाने के लिए इस तबके के लोगों में जोश भरने का काम उनके इस गीत ने किया। 

हम ओङ-बारूङि, ल्वार-कुल्ली-कभाङि, जधीन यो दुनी थैं हिसाब ल्यूंलो.
एक हांगो नै मांगू, एक ठांगो नै मांगूं, पूरो खाता-खतौनी को हिसाब ल्यूंलो

इसी दौरान जनता के बीच आशा का संचार करता गिर्दा का यह गीत आया जो आने वाले कई पीढियों तक आन्दोलन गीत बन कर गाया जाता रहेगा

जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में
चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको
जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में……

24  सितम्बर, 2000  को गिर्दा ने गैरसैंण रैली में यह छ्न्द कहे थे, जो सच भी हुये

कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

हिमालय को बचाने का आह्वान करती गिरीश तिवारी "गिर्दा" की मर्मस्पर्शी कविता

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।

उत्तराखण्ड के अमर शहीदों को प्रसिद्द जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की श्रद्दांजलि

थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!

कवि गिर्दा की एक कविता है- "कैसा हो स्कूल हमारा?"

जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न भाषा जख़्म उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।

"तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?"
(उत्तराखण्ड राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता)

कैसे कह दूं, इन सालों में, कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ, 
दो बार नाम बदला-अदला, दो-दो सरकारें बदल गई और चार मुख्यमंत्री झेले। 
"राजधानी" अब तक लटकी है, कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर, 
मानसिक सुई थी जहां रुकी, गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि, वो सुई वहीं पर अटकी है। 
वो बाहर से जो हैं सो पर, भीतरी घाव गहराते हैं, आंखों से लहू रुलाते हैं। 
वह गन्ने के खेतों वाली, आंखें जब उठाती हैं, भीतर तक दहला जातीं हैं। 
सच पूछो- उन भोली-भाली, आंखों का सपना बिखर गया। 
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस" बनकर ठहर गया है। 
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया, हैं या उनके प्यादे हैं, बाहर से सब चिकने-चुपड़े, 
भीतर नापाक इरादे हैं, जो कल तक आंखें चुराते थे, वो बने फिरे शहजादे हैं। 
थोड़ी भी गैरत होती तो, शर्म से उनको गढ़ जाना था, बेशर्म वही इतराते हैं। 
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का, सपना चकनाचूर हुआ, 
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का, गहराता नासूर हुआ। 
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके, जंगल-जल कत्लेआम हुआ, 
जो पहले छिट-पुट होता था, वो सब अब खुलेआम हुआ।
पर बेशर्मों से कहना क्या? लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं, कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’ 
इसलिये तुम्हारे माध्यम से, धर दिये सामने सही हाल, 
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

वर्ष 2008  में उत्तराखण्ड की नदियों के संरक्षण के लिये "नदी बचाओ आन्दोलन" चलाया गया। इस अभियान में भी गिर्दा ने अपनी दमदार और निर्णायक भूमिका अदा की, इस आन्दोलन को धार दी गिर्दा के गीतों ने। इस आन्दोलन के सदस्य गिर्दा की कविताओं को गुनगुनाते हुये प्रदर्शन करते रहे-

एक तरफ बर्बाद बस्तियां, एक तरफ हो तुम,
एक तर्फ डूबती किश्तियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ है प्यासी दुनियां-एक तरफ हो तुम।
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी, तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,बिछी हुई है बिसात तुम्हारी।
सारा पानी चूस रहे हो, नदी-समुन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर, कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,
उफऽऽ! तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक ये मनमर्जी ?
जिस दिन डोलेगी ये धरती, सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूंद-बूंद को तरसोगे जब-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
दिली-देहरादून में बैठे-योजनाकारी तब क्या होगा?
आज भले ही मौज उड़ा लो, नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो, 
लेकिन डोलेगी जब धरती-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी-तब क्या होगा?
ओऽऽ योजनाकारी-तब क्या होगा?
नकद-उधारी-तब क्या होगा?
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम॥

पहियों की दौड़ 
"दो पहियों की दौड़ मची है ,दुनियां पीछे छूट  रही है 
आसमान की सोच रहे हैं, पावों  की खबर नहीं है । 
जिनको हम समझे थे दानिश, अक्ल उन्हीं की रेहन पड़ी है 
बात करो कहते हो तब तुम, जब बहसों पर खाक पड़ी है । 
इधर ताल समतल बनता है, उधर " माल " कुछ और बढ़ी है 
रिक्शे - भाड़े से मत बिदको, महंगाई उस पर भी चढ़ी है ।"




'गिर्दा' के कुछ वीडियो को संग्रहित निम्न वीडियो में किया गया है । कृप्या इस वीडियो को देखकर लाइक करना ना भूले और हमारे यूट्यूब चैनल (YOU-TUBE CHANNEL) सब्सक्राइब (SUBSCRIBE ) कर अपनी राय लिखना ना भूले ।



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1 comment:

  1. लोक कवि गिर्दा जी का विस्तृत परिचय प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आपका

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