Monday 10 April 2017

Girish Tiwari (Girda) गिरीश तिवारी 'गिर्दा'

गिरीश तिवारी 'गिर्दा'





गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली हवालबाग गांव में हुआ।  उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवाडी और माता का नाम जीवंती तिवाडी था। 'गिर्दा' का परिवार थोड़ा उच्चवर्गीय तो था ही इसलिये गिर्दा'  को पढ़ाई के लिये  अल्मोड़ा भेज दिया गया । 'गिर्दा' ने  कक्षा 5 तक कोई पढ़ाई नहीं की। कक्षा 6 से स्कूल में भरती हुए । ग्रामीण वातावरण में पैदा हुए  तो गाने-बजाने की ओर भी रुझान था। गिर्दा मूलतः कुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं,लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में अपनी एक
अलग पहचान बनायी। वह आजीवन जन संघर्षों से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में जन पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी।  'गिर्दा' ने अपने परिचय को  कुछ इस प्रकार दिया  -









‘अरे गौं गाड़ को पत्त दिण तै भई हमारी पुरानी परिपाटी,
जिल्ल अल्मोड़ा, गौं ज्योली, पट्टी तल्ला स्यूनरा में हवालबाग की घाटी,
भुस्स पहाड़ में जन्म मेरो, च्यून-च्यून बसी भै हिमाल,
शीशि मेरो असमान पूजी, काखि में लोटि रूनी म्यर डाँडी-काँठी।’


'गिर्दा' करीब कक्षा 7-8 में चारु चन्द्र पाण्डे जी के सम्पर्क में आये।  चारु चन्द्र पाण्डे जी ने ही उन्हें स्कूल के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया। चारु चन्द्र पाण्डे जी की सहायता से गिर्दा' को और फिर गौर्दा के माध्यम से सम्पूर्ण लोक साहित्य को समझने की प्रेरणा मिली। 'गिर्दा' ने हाईस्कूल की परीक्षा राजकीय इंटर कालेज अल्मोड़ा  और इंटर एशडेल स्कूल, नैनीताल (व्यक्तिगत) से पास किया। 1964  'गिर्दा' लखनऊ चले गये । इसके बाद गिर्दा गीत और नाटक प्रभाग, आकाशवाणी में नौकरी करने लगे, स्व० जीत जरधारी और बंशीधर पाठक "जिग्यासू" के माध्यम से गिर्दा ने रेडियो प्रसारण में अपने कई कार्यक्रम दिये। तारा दत्त सती जी के सथ मिलकर मोहिल माटी और रामायण नृत्य नाटिकायें लिखी तो लेनिन पन्त जी के साथ अंधाधुन्ध नाटक का निर्देशन और संगीत रचना की। इसी दौरान धनुष यग्य और नगाड़े खामोश हैं, नाटक भी लिखे। बाद में मिस्टर ग्लांड, अन्धेर नगरी और भारत दुर्दशा नामक नाटकों का निर्देशन भी किया। गिर्दा ने अनेक कुमाऊंनी गीतों का धुन सहित हिन्दी में भी अनुवाद किया है। उर्दू से कुमाऊंनी और कुमाऊंनी से उर्दू रचनाओं का भी अनुवाद इन्होने किया। फैज की प्रमुख रचना "हम मेहनतकश जग वालॊ" का कुमाऊनी अनुवाद "हम कुल्ली कबाड़े, ओड़ बारूडी़" इसका एक उदाहरण है।

तत्पाश्चात 'गिर्दा' PWD बर्ग-4 में SOIL TESTING में पिलीभीत  आये । उन दिनों लखीमपुर खीरी में कुछ परिवर्तन गामी शक्तिया काम कर रही थी 'गिर्दा' का उनसे सम्पर्क हुआ। 1967 में 'गिर्दा' सरोवर नगरी नैनीताल में आये वहा  'गिर्दा' बृजेन लाल शाह से मिले । 'गिर्दा' बृजेन लाल शाह जी से बचपन से ही प्ररित थे । 'गिर्दा'  ने उन्से 800 से ज्यादा धुनें और शब्दो का उपयोग सीखा। उन्ही से 'गिर्दा' ने संगीत का चरित्रीक विस्लेषण  सीखा । आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला। प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’ ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं । गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है।

उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम 'चलता फिरता रेडियो' बन गए। वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का 'नैनीताल बुलेटिन' तल्लीताल डांठ पर पड़ने लगे। उन्होंने हिंदी, उर्दू, कुमाऊनीं व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिंग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये। उत्तराखण्ड आन्दोलन जब अपने पूरे शबाब पर था और सभी सांस्कृतिक संस्थाएँ, कलाकार, रंगकर्मी, कवि आदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गीत, संगीत, नाटक के जरिये आन्दोलन को तेल-पानी दे रहे थे और पूरा जनमानस इस ऊर्जा से चार्ज था। उत्तराखण्ड आन्दोलन  में रोज-बरोज नये छंद जुड़ते और इसी से उत्तराखण्ड काव्य की रचना हुई। उत्तराखण्ड काव्य पर स्वयं 'गिर्दा' ने बहुत सटीक टिप्पणी की है।

‘यह काव्य या कि यह गीत पंक्तियाँ 
चूँकि नहीं बनती प्रतिदिन
नुक्कड़ नुक्कड़ ये गाने हित
गा कर खबर सुनाने हित
आन्दोलन मुखर बनाने हित
इसलिए इन्हें हू ब हू बहुत मुश्किल
हरूफों में लिख पाना
जैसे कोई लोक काव्य।’



जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेंद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में 'उत्तराखंड ऐसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका-UANA' के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे जहां नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी। उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था। प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृति कर्मी स्वर्गीय बृजेन्द्र  लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ’मेरी विरासत का वारिश गिर्दा है।‘ गिर्दा, आदि विद्रोही थे। वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए। प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया। उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया। होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया।


उत्तराखंड के जनकवि गिरीश चंद्र तिवाडी ‘गिर्दा’ का 22 अगस्त 2010 सुबह हल्द्वानी में देहांत हो गया। वह काफी समय से बीमार चल रहे थे। उनकी अंत्येष्टि 23 अगस्त 2010 सुबह पाईन्स, नैनीताल में सम्पन्न हुई। गिर्दा भौतिक रूप से आज हमारे बीच नहीं है। एक शरीर चला गया लेकिन उनका संघर्ष, उनकी बात, उनके गीत, उनकी कविता, उनके लोक नाटकों में उठाए गये मुद्दे और जो कुछ वह समाज को दे गये वह सारा कुछ हमेशा जनसंघर्षो को ऊर्जा देता रहेगा। गिरदा आम जन की हर लड़ाई में संघर्ष के गीत गाते रहेंगे। जनता के पक्ष के कवि की आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी।





गिरदा परिपक्व दृष्टि वाला एक ऐसा जनकवि था जो जनता के खिलाफ हाने वाले हर षडयन्त्र के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़ा था और उन षडयन्त्रों के खिलाफ लोगों को आगाह करते हुए चलता था। 

‘उत्तराखण्ड की, आज लड़ाई यह जो,
हम लड़ रहे सभी, सीमित हरगिज उत्तराखण्ड तक। 
इसे नहीं, साथी समझो
यदि सोच संकुचित हुआ कहीं, तो भटक लड़ाई जाएगी इसलिए। 
खुले दिल और दिमाग से |
 मित्रो लड़ना है इसको।’

गिरदा ने इस सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ हमेशा ही टिप्पणी की है- 

‘हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें,
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें। 
गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागीं थी क्या, 
खुद निशाने पे पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें'। 

 पहाड़ी (पारम्परिक) होलियों को भी गिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इस गौरवशाली परम्परा को और व्यापक फलक तथा दृष्टि दी और कई नये प्रयोग भी किये । होली गीतों को भी अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिकता दी। 

‘झुकी आयो शहर में व्योपारी,
पेप्सी कोला की गोद में बैठी, संसद मारे पिचकारी
दिल्ली शहर में लूट मची है। आयो विदेशी व्योपारी।’

"नशा नही रोजगार दो आन्दोलन" के दौरान "जन एकता कूच करो, मुक्ति चाहते हो तो आओ संघर्ष में कूद पडो"  गाकर आम जनता से आन्दोलन में भागीदारी का आह्वान किया। मजदूर-किसानों के हक दिलाने के लिए इस तबके के लोगों में जोश भरने का काम उनके इस गीत ने किया। 

हम ओङ-बारूङि, ल्वार-कुल्ली-कभाङि, जधीन यो दुनी थैं हिसाब ल्यूंलो.
एक हांगो नै मांगू, एक ठांगो नै मांगूं, पूरो खाता-खतौनी को हिसाब ल्यूंलो

इसी दौरान जनता के बीच आशा का संचार करता गिर्दा का यह गीत आया जो आने वाले कई पीढियों तक आन्दोलन गीत बन कर गाया जाता रहेगा

जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में
चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको
जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में……

24  सितम्बर, 2000  को गिर्दा ने गैरसैंण रैली में यह छ्न्द कहे थे, जो सच भी हुये

कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

हिमालय को बचाने का आह्वान करती गिरीश तिवारी "गिर्दा" की मर्मस्पर्शी कविता

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।

उत्तराखण्ड के अमर शहीदों को प्रसिद्द जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की श्रद्दांजलि

थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!

कवि गिर्दा की एक कविता है- "कैसा हो स्कूल हमारा?"

जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न भाषा जख़्म उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।

"तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?"
(उत्तराखण्ड राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता)

कैसे कह दूं, इन सालों में, कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ, 
दो बार नाम बदला-अदला, दो-दो सरकारें बदल गई और चार मुख्यमंत्री झेले। 
"राजधानी" अब तक लटकी है, कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर, 
मानसिक सुई थी जहां रुकी, गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि, वो सुई वहीं पर अटकी है। 
वो बाहर से जो हैं सो पर, भीतरी घाव गहराते हैं, आंखों से लहू रुलाते हैं। 
वह गन्ने के खेतों वाली, आंखें जब उठाती हैं, भीतर तक दहला जातीं हैं। 
सच पूछो- उन भोली-भाली, आंखों का सपना बिखर गया। 
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस" बनकर ठहर गया है। 
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया, हैं या उनके प्यादे हैं, बाहर से सब चिकने-चुपड़े, 
भीतर नापाक इरादे हैं, जो कल तक आंखें चुराते थे, वो बने फिरे शहजादे हैं। 
थोड़ी भी गैरत होती तो, शर्म से उनको गढ़ जाना था, बेशर्म वही इतराते हैं। 
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का, सपना चकनाचूर हुआ, 
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का, गहराता नासूर हुआ। 
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके, जंगल-जल कत्लेआम हुआ, 
जो पहले छिट-पुट होता था, वो सब अब खुलेआम हुआ।
पर बेशर्मों से कहना क्या? लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं, कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’ 
इसलिये तुम्हारे माध्यम से, धर दिये सामने सही हाल, 
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

वर्ष 2008  में उत्तराखण्ड की नदियों के संरक्षण के लिये "नदी बचाओ आन्दोलन" चलाया गया। इस अभियान में भी गिर्दा ने अपनी दमदार और निर्णायक भूमिका अदा की, इस आन्दोलन को धार दी गिर्दा के गीतों ने। इस आन्दोलन के सदस्य गिर्दा की कविताओं को गुनगुनाते हुये प्रदर्शन करते रहे-

एक तरफ बर्बाद बस्तियां, एक तरफ हो तुम,
एक तर्फ डूबती किश्तियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम,
एक तरफ है प्यासी दुनियां-एक तरफ हो तुम।
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी, तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,बिछी हुई है बिसात तुम्हारी।
सारा पानी चूस रहे हो, नदी-समुन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर, कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,
उफऽऽ! तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक ये मनमर्जी ?
जिस दिन डोलेगी ये धरती, सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूंद-बूंद को तरसोगे जब-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
दिली-देहरादून में बैठे-योजनाकारी तब क्या होगा?
आज भले ही मौज उड़ा लो, नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो, 
लेकिन डोलेगी जब धरती-बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी-तब क्या होगा?
ओऽऽ योजनाकारी-तब क्या होगा?
नकद-उधारी-तब क्या होगा?
एक तरफ हैं सूखी नदियां-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम॥

पहियों की दौड़ 
"दो पहियों की दौड़ मची है ,दुनियां पीछे छूट  रही है 
आसमान की सोच रहे हैं, पावों  की खबर नहीं है । 
जिनको हम समझे थे दानिश, अक्ल उन्हीं की रेहन पड़ी है 
बात करो कहते हो तब तुम, जब बहसों पर खाक पड़ी है । 
इधर ताल समतल बनता है, उधर " माल " कुछ और बढ़ी है 
रिक्शे - भाड़े से मत बिदको, महंगाई उस पर भी चढ़ी है ।"




'गिर्दा' के कुछ वीडियो को संग्रहित निम्न वीडियो में किया गया है । कृप्या इस वीडियो को देखकर लाइक करना ना भूले और हमारे यूट्यूब चैनल (YOU-TUBE CHANNEL) सब्सक्राइब (SUBSCRIBE ) कर अपनी राय लिखना ना भूले ।



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Friday 31 March 2017

फूल देई ( Phool Dei )

  फूल संक्रांति ( रंगीलौ उत्तराखण्ड )



उत्तराखण्ड राज्य दुनिया भर में  देवभूमि   के नाम से जाना जाता है, इस सुरम्य प्रदेश की एक और खासियत यह है कि यहां के निवासी बहुत ही त्यौहार प्रेमी होते हैं। उत्तराखण्ड राज्य के पहाड़ी क्षेत्र अपनी विशिष्ट लोक परम्पराओं और त्यौहारों के लिये प्रसिद्ध हैं।  यहाँ प्रचलित कई ऐसे -त्यौहार हैं, जो सिर्फ इस राज्य में ही मनाये जाते हैं।  कृषि से सम्बन्धित त्यौहार हैं हरेला और फूलदेई। 


फूलदेई प्रकृति से जुड़ा पर्व है। हिन्दू परंपरा के अनुसार चैत्र माह से नए साल की शुरुआत होती है। उत्तराखण्ड में फूलदेई चैत महीने के प्रथम दिन मनाया जाता है, जो बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है।

इस दिन छोटे बच्चे सुबह की पहली किरण के फूटते ही बच्चे आसपास के पेड़ों और जंगल से फूल जुटाकर लाने लगते हैं। चैत्र महीने के समय चारों ओर छाई हरियाली और नाना प्रकार के खिले फूल प्रकृति के यौवन में चार चांद लगाते हैं। बच्चे वहां से प्योली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर गांव के हर घर में जाकर उनकी दहलीज पर फूल चढ़ाते हैं।  सबेरे से ही नन्हे-मुन्ने बच्चे सजधज कर घर-घर जाकर फूल देई-छम्मादेई के गीत गाते हैं और गूंज के साथ समूचा गाँव  बच्चों की मीठी किलकारियों से सुबह-सुबह गुंजायमान हो  उठता हैं और बच्चे लोकगीतों के द्धारा सुख-शांति की कामना करते हैं और देहरी का पूजन करते हुये गाते हैं-


फूल देई, छम्मा देई,देणी द्वार, भर भकार,ये देली स बारम्बार नमस्कार,फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।






इसके बदले में उन्हें परिवार के लोग गुड़, चावल व रुपये देते हैं।  मेष संक्रांति कुमाऊं में फूल संक्रांति के नाम से भी जानी जाती है।  वहीं फूल संक्रान्ति के दिन बच्चों द्धारा  प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद अदा करते हैं। दिन  में ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्धारा
उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है। इस दिन लोगों के घरों से मिले चावल से शाम को हलवा (चावे साई) भी बनाया जाता है,इस बनाकर आपस में बाटकर खाया  जाता है।

फूलदेई  के कुछ वीडियो निम्न है । कृप्या  इन वीडियो को देखकर लाइक करना ना भूले और हमारे यूट्यूब चैनल (YOU-TUBE CHANNEL) सब्सक्राइब (SUBSCRIBE ) करना ना भूले ।



गढ़वाल मण्डल में फूलदेई त्यौहार में बच्चो की कुछ झलकियां 


  


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Monday 20 March 2017

भिटौली ( Bhitauli Tradition )

  भिटौली ( रंगीलौ उत्तराखण्ड )

उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं-गढवाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी रंगीली लोक परम्पराओं और त्यौहारों के लिये शताब्दियों से प्रसिद्ध हैं।यहाँ प्रचलित कई ऐसे तीज-त्यौहार हैं जो केवल उत्तराखण्ड में ही मनाये जाते है।वही इसे बचाए रखने का बीड़ा उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र और यहाँ पर रहने वाले पहाड़ी लोगों ने उठाया है इन्होने आज भी अपनी परंपरा और रीति- रिवाजों को जिन्दा रखा है।

उत्तराखण्ड की ऐसी ही एक विशिष्ट परम्परा है “भिटौली”। उत्तराखण्ड में चैत का पूरा महीना भिटोली के महीने के तौर पर मनाया जाता है| स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी के इस गाने मे भिटोला महीना के बारे मे वर्णन है. 

“बाटी लागी बारात चेली ,बैठ  डोली मे, 
बाबु की लाडली चेली,बैठ डोली मे 
तेरो बाजू भिटोयी आला, बैठ डोली मे ”

भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना। प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले (भाई, माता-पिता या अन्य परिजन) चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं।  इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर (आटे + दूध + घी + चीनी का मिश्रण), खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्रादि लेकर जाते हैं। शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को वैशाख के महीने में दी जाती है और उसके पश्चात हर वर्ष चैत्र मास में दी जाती है।  लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली “भिटौली” का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है।  इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है। 

पहाड़ों पर चैत के महीने में एक चिड़िया  घुई-घुई बोलती है। इसे घुघुती कहते हैं। घुघुती का उल्लेख पहाड़ी दंतकथाएं और लोक गीत में भी पाया जाता हैं।  विवाहित बहनों को चैत का महिना आते ही अपने मायके से आने वाली 'भिटौली' की सौगात का इंतजार रहने लगता है। इस इन्तजार को लोक गायकों ने लोक गीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है।

“न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”।


भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है । वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। 

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

काला महीना 

भिटोला के अलावा कई जगह यह भी प्रथा है की जब किसी लड़की की शादी होते है शादी के पहले साल, लड़के वाले लड़की के घर ओरग देने आते है. यह भी एक प्रकार से भिटोला की तरह है लेकिन फर्क यह है की लड़की वाले चैत्र  के महीना जिसे काला महीना भी माना जाता है और लड़की आपने माता-पिता के घर मे ही रहती है|
शादी के बाद का जो पहला चैत का महीना होता है उसे 'काला महीना' स्थानीय भाषा में 'काव मेंहन' कहा जाता है, लड़की उस महीने के पहले 5 दिन या पूरे महीने अपने मायके में ही रहती है।यह भी प्रचलन है कि शादी होने के बाद के पहले चैत महीने के 5 दिन तक पत्नी को अपने पति के मुख को भी नहीं देखना होता है इसिलिये वे माईके चली जाती हैं।

आज से कुछ दशक पहले जब यातायात व संचार के माध्यम इतने नहीं थे उस समय की महिलाओं के लिये यह परंपरा बहुत महत्वपूर्ण थी। जब साल में एक बार मायके से उनके लिये पारंपरिक पकवानों की पोटली के साथ ही उपहार के तौर पर कपडे आदि आते थे। समय बीतने के साथ-साथ इस परंपरा में कुछ बदलाव आ चुका है। इस रिवाज पर भी औपचारिकता और शहरीकरण ने गहरा प्रभाव छोडा है।  वर्तमान समय में अधिकतर लोग फ़ोन पर बात करके कोरियर से गिफ़्ट या मनीआर्डर/ड्राफ़्ट से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी प्रेमभाव व पारिवारिक सौहार्द के साथ भिटौली का खास महत्व बना हुआ है।




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Wednesday 15 March 2017

उत्तराखंड में बीजेपी की जीत

उत्तराखंड में बीजेपी की जीत (केसरिया होली)



BJP ने राज्य की 70 विधानसभा सीटों में से 56 सीटों पर जीत का परचम लहराया है। यह राज्य में अब तक के इतिहास में न केवल BJP, बल्कि किसी भी दल के लिए सबसे बड़ा आंकड़ा है। वहीं, कांग्रेस के खाते में बस 11 सीटें ही आई हैं। सिर्फ 11 सीटों पर सिमट गई कांग्रेस के लिए सबसे बुरी बात यह है कि खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा दोनों सीटों से चुनाव हार गए हैं। यही नहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी चुनाव हार गए। पार्टी की हार को देखते हुए मुख्यमंत्री हरीश रावत ने गवर्नर केके पॉल को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। हालांकि, वह कार्यवाहक सीएम बने रहेंगे।

11 माच 8 बजे उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के लिए 15 केंद्रों पर मतगणना शुरू हुई। 15 फरवरी को हुए विधानसभा चुनाव में 75 लाख से ज्यादा मतदाताओं में से करीब 68 फीसद ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर 637 उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में बंद कर दी थी। इस बार उत्तराखंड में अभी तक का सबसे अधिक मतदान हुआ. इस बार के चुनाव में 68 फीसदी मतदान हुआ है. राज्य में साल 2012 के चुनाव में 67.22 फीसदी मतदान हुआ था. 

जीते उम्मीदवारों की फाइनल सूची 
पुरोला - कांग्रेस - राजकुमार
यमुनोत्री - भाजपा - केदार सिंह रावत
गंगोत्री - भाजपा - गोपाल सिंह रावत
बद्रीनाथ - भाजपा - महेंद्र भट्ट
थराली - भाजपा - मगन लाल शाह
कर्णप्रयाग - भाजपा - सुरेन्द्र सिंह नेगी
केदारनाथ - कांग्रेस - मनोज रावत
रुद्रप्रयाग - भाजपा - भरत चौधरी
घनसाली - भाजपा - शक्तिलाल शाह
देवप्रयाग - भाजपा - विनोद कण्डारी
नरेन्द्रनगर - भाजपा - सुबोध उनियाल
प्रतापनगर - भाजपा - विजय सिंह पंवार
टिहरी - भाजपा - धन सिंह नेगी
धनौल्टी - निर्दलीय - प्रीतम सिंह पंवार
चकराता - कांग्रेस - प्रीतम सिंह
विकासनगर - भाजपा - मुन्ना सिंह चौहान
सहसपुर - भाजपा - सहदेव सिंह पुंडीर
धर्मपुर - भाजपा - विनोद चमोली
रायपुर - भाजपा - उमेश शर्मा
राजपुर रोड - भाजपा - खजानदास
देहरादून कैंट - भाजपा - हरबंस कपूर
मसूरी - भाजपा - गणेश जोशी
डोईवाला - भाजपा - त्रिवेन्द्र सिंह रावत
ऋषिकेश - भाजपा - प्रेमचंद्र अग्रवाल
हरिद्वार - भाजपा - मदन कौशिक
बीएचईएल रानीपुर-  भाजपा - आदेश चौहान
ज्वालापुर - भाजपा - सुरेश राठौर
भगवानपुर - कांग्रेस - ममता राकेश
झबरेडा - भाजपा - देश राज कर्णवाल
पिरान कलियर - कांग्रेस - फुरकान अहमद
रूडकी - भाजपा - प्रदीप बत्रा
खानपुर - भाजपा - कुंवर प्रणव सिंह
मंगलौर - कांग्रेस - काजी मुहम्मद निजामुदीन
लक्सर - भाजपा - संजय गुप्ता
हरिद्वार ग्रामीण - भाजपा - स्वामी यातिस्वरानंद
यमकेश्वर - भाजपा - ऋतु खण्डूरी
पौड़ी - भाजपा - मुकेश कौली
श्रीनगर - भाजपा - डॉ धनसिंह रावत
चौब्बटाखाल - भाजपा - सतपाल महाराज
लैंसडॉन - भाजपा - दिलीप सिंह रावत
कोटद्वार - भाजपा - हरक सिंह रावत
धारचूला - कांग्रेस - हरीश सिंह धामी
डीडीहाट - भाजपा - बिशन सिंह
पिथौरागढ़ - भाजपा - प्रकाश पन्त
गंगोलीहाट - भाजपा - मीना गंगोला
कपकोट - भाजपा - बलवन्त सिंह भौर्याल
बागेश्वर - भाजपा - चंदनराम दास
द्वाराहाट - भाजपा -  महेश नेगी
सल्ट - भाजपा - सुरेन्द्र सिंह जीना
रानीखेत - कांग्रेस - करन महरा
सोमेश्वर - भाजपा - रेखा आर्य
अल्मोड़ा - भाजपा - रघुनाथ सिंह चौहान
जागेश्वर - भाजपा - गोविंद सिंह कुंजवाल
लोहाघाट- पूरन सिंह फर्त्याल
चम्पावत - भाजपा - कैलाश गहतोड़ी
लालकुंआ - भाजपा - नवीन दुम्का
भीमताल - निर्दलीय - राम सिंह
नैनीताल - भाजपा - संजीव आर्य
हल्द्वानी - कांग्रेस - इंदिरा हृदयेश
कालादुंगी - भाजपा - वंशीधर भगत
रामनगर - भाजपा - दीवान सिंह बिष्ट
जसपुर - कांग्रेस - आदेश सिंह चौहान
काशीपुर - भाजपा - हरभजन सिंह चीमा
बाजपुर - भाजपा - यशपाल आर्य
गदरपुर - भाजपा - अरविन्द पाण्डे
रुद्रपुर - भाजपा - राजकुमार ठुकराल
किच्छा - भाजपा - राजेश शुक्ल
सितारगंज - भाजपा - सौरभ बहुगुणा
नानकमत्ता - भाजपा - डॉ प्रेम सिंह राणा 
खटीमा - भाजपा - पुष्कर सिंह धामी